भारतीय-विदेशी मुद्दा किसी समुदाय से संबंधित नहीं, बल्कि यह एक राष्ट्रीय मुद्दा है – टी. आरिफ अली
(जमाअत इस्लामी हिन्द के महासचिव टी आरिफ अली से एनआरसी विषय पर बात-चीत का कुछ अंश)
अंततः, 31 अगस्त 2019 को अर्से से लंबित और विवादित नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजनशिप की अंतिम सूची प्रकाशित हो गयी। असम राज्य समन्वयक ने बताया कि सूची में 25 मार्च 1971 से असम में रह रहे तमाम 3,11, 21,004 योग्य आवेदकों को इस सूची में शामिल कर लिया गया है, जबकि 19, 06,657 लोग अपने दावा में विफल रहे हैं। जिन लोगों के नाम सूची में शामिल कर लिए गए हैं अब वे देश के वैध नागरिक हैं। जिनका नाम शामिल नहीं हो सका उन्हें मोहलत दी गयी है कि वह 120 दिनों के भीतर फॉरेनर ट्रिब्यूनल में दस्तावेज़ के साथ अपने शहरी होने का दावा पेश कर सकते हैं।
पूर्वोत्तर भारत का असम देश का ऐसा पहला राज्य बन गया है जहां एनआरसी अपडेशन का कार्य अंतिम रूप लिया। एनआरसी की अद्यतन प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय की प्रत्येक्ष निगरानी में 2015 में शुरू हुई। सर्वप्रथम यह रजिस्टर 1951 की जनगण्ना के बाद तैयार किया गया था। संशोधित भारतीय नागरिकता अधिनियम 1955 के अनुसार वे सभी व्यक्ति जिनके नाम 24 मार्च 1971 की मध्य रात्री तक असम राज्य की क्षेत्रिय सीमा के भीतर तत्कालीन विधान सभा क्षेत्र के लिए प्रकाशित किसी भी मतदाता सूची में दिखायी दिया, वे और उनके वंशज देश के स्थायी नागरिक हैं।
एनआरसी का मामला पक्षपातपूर्ण प्रक्रिया की ख़बरों से विवादों के घेरे में आया। विशेषकर मुस्लिम समुदायों में संशय की स्थिति व्याप्त हुई। जमाअत इस्लामी हिन्द जो कि एक सामाजिक एवं धार्मिक संगठन है, जुलाई 2018 में एनआरसी की पहली सूची जारी होने के बाद लोगों की मदद के लिए आगे आया। जमाअत विभिन्न संगठनों से मिलकर सामाजिक और मानव कल्याण के कामों को अंजाम देती है। संगठन ने प्रभावित लोगों की मदद के लिए 215 हेल्प सेंटर स्थापित किए। एपीसीआर (Association for Protection of Civil Rights) के साझा प्रयास से धार्मिक भेदभाव और पक्षपात के बिना लगभग 6 लाख लोगों से मुलाक़ात की और डेटा जमा किया, लगभग 1.5 लाख फार्म भरे गए और एनआरसी की साइट पर अपलोड करवाया गया। संगठन का प्रयास था कि कोई भी वास्तविक नागरिक सूची में नाम दर्ज कराने से छूट न जाए। संगठन ने प्रभावित लोगों के दस्तावेज़ों में ज़्यादातर दो मामूली खामी पायी थी, जिसकी वजह से उनका नाम सूची में दर्ज नहीं हो सका। एक तो उनके पास वंशावली सुरक्षित नहीं है और दूसरा लिपिकीय या वर्तनी की ग़लती (भाषादोष) के कारण। नोडल अधिकारियों पर भी आरोप था कि जो दस्तावेज़ पेश किया गया उसने उसे स्वीकार नहीं किया। सरकार की तरफ से आदेश तो यह होना चाहिए था कि कोई भी वास्तविक शहरी का नाम छूटने न पाए। लेकिन सरकार की मंशा यह थी कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को बाहर किया जाए। इसीलिए वे नोडल अधिकारी जिसने अधिक से अधिक लोगों को अयोग्य ठहराया अच्छे अधिकारी माने गए। और जिसने नियम का पालन करते हुए ज़्यादह लोगों के आवेदनों को स्वीकार किया उसे अयोग्य अधिकारी ठहराया गया । नैतिकता का सिद्धांत तो यही बताता है कि एक हज़ार मुजरिमों को छोड़ा जा सकता है, लेकिन एक निर्दोष को बेवजह सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन सरकार के दृष्टिकोण और पूर्वाग्रही नोडल अधिकारियों ने विशेष समुदाय के लोगों को महत्व नहीं दिया और जो दस्तावेज पेश किया गया उसमें कोई न कोई ख़ामी निकालकर रद्द कर दिया गया। साथ ही पेचीदा समस्याएं पैदा कर दी गयीं ताकि अधिक से अधिक लोग सूची से बाहर रहें। जमाअत इस्लामी हिन्द का ख्याल है कि अगर पूरी प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में नहीं होती तो अंतिम सूची से बाहर होने वालों की संख्या और भी बढ़ जाती।
अंतिम सूची जारी होने के बाद अब भी लोगों के पास विकल्प है कि वे विदेशी अधिकरण (एफटी) में नागरिक होने का दावा पेश कर सकते हैं। लेकिन संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि इंसाफ की उम्मीद यहां भी कम है। विदेशी अधिकरण एक न्यायिक निकाय है, जिसे विशेष रूप से यह तय करने के लिए स्थापित किया गया है कि कौन विदेषी है और कौन नहीं। इसे नागरिकता देने की शक्ति नहीं है। पूरे असम राज्य में 300 विदेशी अधिकरण कायम होंगे। जमाअत इस्लामी हिन्द के महासचिव ने कहा कि अधिकरण के सामने दस्तावेज पर जब बहस शुरू होगी तो केस लंबा होता जाएगा। 19 लाख लोगों के लिए 300 नाकाफी है। दूसरी समस्या जज की योग्यता का है। जिन जजों को इस काम के लिए नियुक्त किया जा रहा है वह अदालत में पांच या छह साल के साधारण वकील हैं जो जमानत अर्जी भी मुष्किल से पेष कर पाते हैं। जाहिर सी बात है कि जब जज निम्न स्तरीय होंगे तो स्थिति वैसी ही होगी जैसा नोडल अधिकारी के मामले में हुआ था। असम में वर्तमान समय में शब्द एफटी लोगों के बीच घबराहट और चिंता का पर्याय बन गया है। 2013 में एनआरसी की प्रक्रिया के साथ ही एफटी की बदनामी शुरू हो गई थी । संगठन युनाइटेड एगेंस्ट हेट की तथ्य जांच टीम ने पाया कि ट्रिब्यूनल उन सभी बुराइयों का प्रतिनिधित्व करता है जिससे एनआरसी ग्रस्त है। ट्रिब्यूनल न्याय नहीं बल्कि उत्पीड़न की जगह बन गयी है। धुबरी जिले के एक एफटी मेंबर श्री कार्तिक राय ने अपने कार्यकाल में 380 मामलों का निबटारा किया और केवल 5 आवेदकों को विदेशी घोषित किया। लेकिन उनके इस प्रदर्शन को ‘असंतोषजनक’ करार दे कर बर्खास्त करने की सिफारिश की गई। ठीक इसके विपरित श्री नबा कुमार बरुआ जिसने 321 मामलों में 240 आवेदकों को विदेशी घोषित किया उसे ‘संतोषजनक प्रदर्शन’कहा गया और राज्य सरकार ने उसके लिए पद पर बने रहने की सिफारिश की।
अंतिम सूची को लेकर हिन्दू और मुसलमान दोनों का कहना है कि यह उनके खिलाफ साजिश है। हिन्दुओं का विचार यह था कि एनआरसी सूची से लगभग 50 लाख मुसलमान बाहर होंगे। लेकिन यथार्त विचार के बिल्कुल विपरीत साबित हुआ। बीजेपी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के किसी भी अवसर को खोना नहीं चाहती है। मौजूदा केंद्र और असम सरकार ने इस स्थिति का भरपुर फायदा उठाया। महासचिव टी आरिफ अली का कहना कि समस्याओं को सांप्रदायिक चश्में से नहीं बल्कि देश हित की दृष्टि से देखना चाहिए। पता यह लगाना है कि असल में भारतीय कौन हैं और विदेशी कौन। दूसरी बात यह है कि बीजेपी नागरिक संशोधन विधेयक लाने वाली है। जिसमें यह प्रावधान रखा गया है कि बाहर से जितने भी हिन्दू यहां आए हैं उन्हें भारतीय समझा जाए। क्योंकि हिन्दुओं के लिए केवल भारत ही एक मात्र देश है जहां वे प्रवास कर सकते हैं, जबकि मुसलमानों के लिए अफग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश के अलावा बहुत से मुस्लिम देश हैं जहां वे जा सकते हैं। महासचिव सवाल उठाते हैं कि भारतीय-विदेशी मुद्दा को सांप्रदायिक रंग किसने दिया? उन्होंने बताया कि विदेशी तो यहां आते और जाते रहे हैं। यह समस्या किसी समुदाय से संबंधित नहीं है, बल्कि यह एक राष्ट्रीय मुद्दा है। सरकार के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास को रोका जाना चाहिए।
हिरासती केंद्र के संबंध में उन्होंने बताया कि असम में बड़े पैमाने पर यह केंद्र बनाया जा रहा है। संशय इस बात को लेकर है कि आखिर इसका मक़सद किया है। पारंपरिक जेल के लिए कानून और नियम निश्चित हैं । मानवाधिकार के तहत कैदियों को उनके मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। कैदी जीवन में भी आज़ादी और सूचना हासिल करने का हक है। स्वास्थ्य के लिए मेडिकल सूविधा उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। लेकिन हिरसती केंद्र में ऐसा कुछ नहीं होगा। 19 लाख लोग जो अंतिम सूची से बाहर हो गए हैं, उनलोगों का भविष्य अंधकारमय है। उनके पास आधार कार्ड, राशन कार्ड नहीं होगा। बैंक एकाउंट नहीं खोल सकते। उनके पास ज़मीन की एक टुकड़ी नहीं होगी। कुछ लोग होंगे जो उनसे काम और मज़दूरी करवाएंगे लेकिन उन लोगों को कोई हक नहीं दिया जाएगा। सरकार चाहती है कि इन लोगों का वंष आगे नहीं बढ़े। ऐसी स्थिति में हिरासती कैंप में औरतों और मर्दों को अलग रखा जाएगा। चिड़िया घरों की तरह उन्हें खाना देने वाले ठेकेदार होंगे जिससे कुपोषण और बुनियादी मौलिक अधिकार के हनन की पूरी संभावना है।
2021 में देश में नयी जनगणना होगी। इससे पहले एनपीआर (नेशनल पोपुलेशन रजिस्टर) तैयार होगा। जमाअत चाहती है कि एनपीआर निश्चित तौर पर तैयार होना चाहिए। लेकिन बीजेपी की सरकार, उनके नेता और प्रवक्ता एनपीआर को एनआरसी से जोड कर लोगों को भ्रमित कर रहे हैं। खुद अमित शाह भी यही काम कर रहे हैं। इसकी वजह से बहुत सी समस्यायें उत्पन्न होने की संभावना है। देश का फिर से सांप्रदायीकरण तय है। देश के मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग में एनआरसी को लेकर पहले से भय व्याप्त है। जब बड़े पैमाने पर विदेशियों को तलाशने की प्रक्रिया शुरू होगी तो तनाव बढ़ना स्वाभाविक है। और फिर यह राष्ट्रीय समस्या बनकर सामने आएगा। देश के बहुसंख्यक वर्ग को लगेगा कि ‘विदेशी मुस्लिमों’ की तलाशी हो रही है और मुसलमान को महसूस होगा कि उनका शिकार किया जा रहा है।
जमाअत के महासचिव ने कहा कि अगर विदेशियों की पहचान करनी है तो मूल प्रक्रिया अपनाया जाना चाहिए, साथ ही पाकिस्तान, बंग्लादेश, बर्मा आदि सीमा को पक्का करने की आवश्यकता है। सीमा पर के जवानों में अनियमित्ता की वजह से लोग बाहर से देश के अंदर आते हैं। अगर सीमा सुरक्षित नहीं होगी तो हम अंदर किस तरह नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं। लेकिन सरकार देश की व्यवस्था को ठीक करने के बजाए प्रवास को राजनीतिक और सांप्रदायिक मुददा बनाती है। इस समस्या को बढ़ने देने के लिए सरकार ज़िम्मेदार है, न कि प्रवासी!
प्रस्तुति: शकीलुर रहमान
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